ब्याज दर और भारत का आर्थिक पुनरुद्धार
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क्या वैश्विक अर्थव्यवस्था पर एक और मंदी की मार पड़ने वाली है? कारोबारी जंग के साथ अमेरिकी मीडिया में इस बात को लंबी अवधि की वित्तीय नीति लेकर लगातार चर्चा चल रही है कि सरकार की छोटी अवधि वाले बाॅन्ड के मुकाबले लंबी अवधि वाले बाॅन्ड पर कम रिटर्न आ रहा है। क्या एक बार फिर बड़ी मंदी आने वाली है? या फिर इसे सक्रिय नीतियों से टाला जा सकता है? 2008 की मंदी के वक्त दुनिया भर की सरकारों ने मौद्रिक रियायत पर जोर दिया था न कि वित्तीय रियायत पर। इस नीति से कोई खास अपेक्षा इस बार नहीं की जा रही है। भारत के नीति निर्माताओं ने भी मौद्रिक नीति की नाकामी से सबक नहीं लिया है। ये लोग इस बात पर सहमत हैं कि ब्याज दरों में बदलाव करके आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित किया जा सकता है। जबकि इसे गलत साबित करने वाले पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध हैं। भारतीय रिजर्व बैंक ने पिछले दिनों रेपो दर में 0.35 फीसदी कटौती की घोषणा की। इसके पीछे सोच यह है कि कर्ज सस्ता होने से निजी निवेश बढ़ेगा और मांग में भी तेजी आएगी। अगर किन्स होते तो कहते कि मौद्रिक नीतियों के विस्तार वाले प्रभावों के मामले में कथनी और करनी में काफी फर्क होता है। भारत की अर्थव्यवस्था को प्रतिचक्रीय उपायों की जरूरत है। लेकिन क्या इसमें ब्याज दरों का कोई योगदान होगा?
पहले खपत को देखते हैं। खपत और मौजूदा आय में संबंध होता है। खास तौर पर जब मौजूदा आय कम हो और भविष्य की आय को लेकर लंबी अवधि की वित्तीय नीति उम्मीदें स्पष्ट नहीं हों। यही वजह थी कि किन्स ने अर्थव्यवस्था की सेहत सुधारने की दृष्टि से खपत को निष्क्रिय कारक कहा था। खपत आय से संबंधित है इसलिए यह चक्रिय होती है। इसलिए सुधार के लिए इसे आधार बनाना ठीक नहीं है।
जहां तक निवेश की बात है तो यह मुनाफे की उम्मीद और ब्याज दरों पर निर्भर है। अगर मुनाफा कम होने की उम्मीद हो और कारखाने क्षमता के मुकाबले कम उत्पादन कर रहे हों तो पूंजीपति ब्याज दर कम होने के बाजवूद निवेश नहीं करना चाहेंगे। ब्याज दर एक वजह है लेकिन निवेश बढ़ाने की यह इकलौती वजह नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि निवेश भी अप्रत्यक्ष तौर पर मांग लंबी अवधि की वित्तीय नीति से संबंधित है और इसे भी प्रतिचक्रिय उपाय नहीं माना जा सकता।
लेकिन एक बात पर ध्यान देने की जरूरत है। अभी सिर्फ कर्ज लेने वालों की दृष्टि से लंबी अवधि की वित्तीय नीति सोचा जा रहा है। जबकि किसी भी लेन-देन में कर्ज देने वाले भी होते हैं। यहां इस भूमिका में बैंक और गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाएं हैं। रेपो रेट की कटौती का लाभ ग्राहकों को देने के लिए बैंकों को ब्याज दरों में कटौती करनी होगी। जो कई बार कई अन्य वजहों से संभव नहीं हो पाता। कठिन समय में कर्ज देने वाले अधिक मुनाफा लेना चाहेंगे क्योंकि उनके यहां गैर निष्पादित संपत्तियों का अनुपात बढ़ा है।
अभी जैसा हो रहा है अगर उस तरह से ये ब्याज दर कम भी कर दें तो वे कम से कम कर्ज देना चाहेंगे। ऐसे में बैंक ये कर सकते हैं कि वे ब्याज दर तो कम कर देंगे लेकिन कर्ज सिर्फ उन्हीं को देंगे जो उन्हें सबसे अधिक विश्वस्त ग्राहक लग रहे हों। ऐसे में आवश्यक परिस्थितियों का निर्माण नहीं हो पाएगा।
ऐसे में रास्ता क्या है? किन्स कहते थे कि वित्तीय नीति अधिक उपयोगी है क्योंकि यह सीधे तौर पर गतिविधियों को प्रभावित करता है। लेकिन वित्तीय जिम्मेदारी और बजट प्रबंधन कानून की वजह से यहां लंबी अवधि की वित्तीय नीति भी संभावनाएं सीमित हो गई हैं। पिछले बजट में घाटे के लक्ष्य को जीडीपी के 3.3 फीसदी पर निर्धारित किया गया है। जब तक खुद से बनाई गई इन दिक्कतों को दूर नहीं किया जाता तो फिर मंदी से बचने का कोई उपाय नहीं है और सुधार में काफी वक्त लगेगा। लेकिन पारंपरिक वित्तीय प्रोत्साहन कम अवधि का समाधान है। भारतीय अर्थव्यवस्था का संकट कारोबारी चक्र की दिक्कतों की वजह से पैदा नहीं हुआ है। बल्कि इसका संकट संरचनात्मक भी है। इसके लिए वित्तीय नीतियों में बदलाव के साथ-साथ और गहरे हस्तक्षेपों की जरूरत है। पहले तो उन स्रोतों की पहचान जरूरी है जो समान और सतत विकास सुनिश्चित कर सकें। संभवतः यह सही समय है जब पर्यावरण अनुकूल बुनियादी ढांचे में सरकार अधिक निवेश करे। यह एक खास तरह का निश्चित वित्तीय हस्तक्षेप होगा। ऐसे खर्चों का प्रभाव कई स्तर पर पड़ता है। पर्यावरण के अनुकूल होने वाला विकास अधिक समावेशी होता है। क्योंकि इसमें रोजगार की संभावनाएं अधिक होती हैं और इसमें पर्यावरण को संरक्षित करने की क्षमताएं भी होती हैं। संक्षेप में कहें तो भारतीय अर्थव्यवस्था के भविष्य के लिए जब तक व्यापक योजना नहीं बनेगी तब तक तात्कालिक कदमों का कोई दीर्घकालिक लाभ नहीं होगा। लेकिन हमारे यहां एक ऐसी सरकार है जो अब योजना बनाने पर यकीन नहीं करती!
लंबी अवधि की वित्तीय नीति
हमारी शाखा/कार्यालय परिसर के भू-स्वामी (हमारे बैंक को पट्टे पर दिए गए आवासीय फ्लैट/घर सहित)
संपत्ति के मालिक (वाणिज्यिक/आवासीय) जिन्होंने उक्त को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, डाकघर एवं सरकारी विभागों को किराए पर दिया है.
संपत्ति के मालिक (वाणिज्यिक/आवासीय/आईटी पार्क/ मॉल/औद्योगिक क्षेत्र/एसईजेड में संपत्ति) जिन्होंने उक्त को अन्य प्रतिष्ठित कंपनियों/ बहुराष्ट्रीय कंपनियों/संस्थानों/निजी क्षेत्र के बैंकों आदि को किराए पर दिया है.
छोटी से लंबी अवधि की जरूरतों के लिए या किसी अन्य आवश्यकता के लिए ऋण स्वीकृत किया जा सकता है.
हालांकि, बैंक की उधार नीति और/या आरबीआई द्वारा समय-समय पर निषिद्ध उद्देश्यों/गतिविधियों के लिए वित्त पर विचार नहीं किया जाएगा.
योजना के तहत स्वीकृत की जा सकने वाली प्रति पार्टी अधिकतम सीमा की गणना बैंक को उपलब्ध अधिकतम 120 महीने तक की शुद्ध किराया राशि को ध्यान में रखते हुए की जानी चाहिए, जो निम्न के अधीन है:
अवशिष्ट/प्रभावी पट्टा अवधि के लिए शुद्ध किराये की आय का 75% अर्थात सकल किराया रहित (प्राप्त अग्रिम किराया + संपत्ति कर + टीडीएस + पट्टेदार के अन्य वैधानिक देय)
संपत्ति के मूल्य का 75%
ऋण (लागू ब्याज दर एवं ऋण की निर्धारित अवधि पर) जिसे लागू प्राप्य किराया से वसूल किया जा सकता है/चुकाया जा सकता है इनमें से जो भी कम हो [पट्टा किराये का प्रतिभूतिकरण एवं 120 महीने तक की असमाप्त लीज अवधि के पश्चात की चुकौती पर भी योजना की शर्तों के अनुसार विचार किया जा सकता है.]
i) रु. 5.लंबी अवधि की वित्तीय नीति 00 करोड़ तक: 0.50% + जीएसटी
ii) रु. 5 करोड़ से अधिक एवं रु. 50 करोड़ तक: 0.25% + जीएसटी
iii) रु. 50 करोड़ से अधिक: 0.50% + जीएसटी
ए. रु. 1.00 लाख तक निर्बंध आधार पर.
बी. रु. 1.00 लाख से अधिक - संपत्ति का बंधक, जिसके संबंध में किराया को ऋण में लिया जाता है. यदि उक्त संपत्ति की प्रतिभूति उपलब्ध नहीं है, तो वैकल्पिक संपत्ति के बंधक की अनुमति है. हालांकि, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि संपत्ति का:
स्पष्ट एवं विपणन योग्य स्वत्वाधिकार है एवं संपत्ति पर किसी भी प्रकार का कोई मुकदमा शेष नहीं होना चाहिए.
पूर्ण स्वामित्व के रूप में होना चाहिए.
वैकल्पिक संपत्ति का मूल्य ऋण राशि के 150% से कम नहीं होना चाहिए.
सी. अन्य ऋणभार योग्य प्रतिभूतियां जैसे एनएससी, बैंक की अपनी जमाराशि, एलआईसी पॉलिसियां आदि जिनका मूल्य ऋण राशि को कवर करने के लिए पर्याप्त है, से भी प्राप्त किया जा सकता है.
डी. भवन की अवशिष्ट आयु ऋण की अवधि से कम से कम 5 वर्ष अधिक होनी चाहिए.
कोई अधिस्थगन की अनुमति नहीं है. चुकौती संवितरण के अगले महीने से शुरू हो जाएगी.
पट्टे की असमाप्त अवधि के भीतर या 120 महीनों के भीतर, इनमें से जो भी पहले हो, संपूर्ण निवल किराया राशि (सकल किराया - आनुपातिक प्राप्त अग्रिम किराया - संपत्ति कर टीडीएस - पट्टेदार की अन्य वैधानिक देय राशि) के उपयोग द्वारा 120 महीने तक ऋण चुकाया जा सकता है.
आरबीआई की नीति से वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित होगी, रुपये को मिलेगी मजबूती: बैंकर
मुंबई, पांच अगस्त (भाषा) देश के प्रमुख बैंकरों ने रिजर्व बैंक की तरफ से नीतिगत दर में बढ़ोतरी का स्वागत करते हुए कहा है कि इस कदम से मुद्रास्फीति को काबू में करने लंबी अवधि की वित्तीय नीति और रुपये की गिरावट रोकने में मदद मिलेगी। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने शुक्रवार को प्रमुख ब्याज दर रेपो को 0.50 प्रतिशत बढ़ाकर 5.40 प्रतिशत कर दिया। लंबी अवधि की वित्तीय नीति यह मई के बाद से तीसरी वृद्धि है। ताजा वृद्धि के साथ रेपो दर या अल्पकालिक उधारी दर महामारी से पहले के स्तर 5.15 प्रतिशत को पार कर गई है। रेपो दर पर ही वाणिज्यिक बैंक केंद्रीय बैंक से उधार
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने शुक्रवार को प्रमुख ब्याज दर रेपो को 0.50 प्रतिशत बढ़ाकर 5.40 प्रतिशत कर दिया। यह मई के बाद से तीसरी वृद्धि है। ताजा वृद्धि के साथ रेपो दर या अल्पकालिक उधारी दर महामारी से पहले के स्तर 5.15 प्रतिशत को पार कर गई है। रेपो दर पर ही वाणिज्यिक बैंक केंद्रीय बैंक से उधार लेते हैं।
भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के चेयरमैन दिनेश खारा ने कहा कि इस कदम से मुद्रास्फीति को नीचे लाने और बाजारों में वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी।
एचडीएफसी बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री अभीक बरुआ ने नीतिगत फैसले को नए वैश्विक रुझानों के अनुरूप बताया। उन्होंने कहा कि आरबीआई ने मुद्रास्फीति के प्रति आक्रामक रुख अपनाया, जो अभी भी ऊंची बनी हुई है। हालांकि, वृद्धि की गति काफी सकारात्मक है।
बरुआ ने उम्मीद जताई कि केंद्रीय बैंक आगामी नीतिगत समीक्षा बैठकों में दरों में बढ़ोतरी जारी रखेगा और साल के अंत तक ब्याज दर को 5.75 प्रतिशत तक ले जाएगा।
एसबीआई समूह के मुख्य आर्थिक सलाहकार सौम्य कांति घोष के अनुसार यह दर वृद्धि तीन संभावनाओं को दर्शाती है। पहली, पिछली 0.50 प्रतिशत वृद्धि का अभी तक मुद्रास्फीति पर कोई सीधा प्रभाव नहीं पड़ा है और लंबी अवधि में मुद्रास्फीति प्रभावित होगी। दूसरी, आरबीआई इस समय मुद्रास्फीति में कमी का पूर्वानुमान नहीं लगाना चाहता क्योंकि वह अनिश्चित वैश्विक वातावरण में वक्र से आगे रहना चाहता है। तीसरा, 0.50 प्रतिशत की यह वृद्धि एक संकेत है कि आरबीआई घरेलू मुद्रा की रक्षा के लिए अधिक गंभीर है।
सिटी इंडिया के मुख्य कार्यकारी आशु खुल्लर ने कहा कि आरबीआई ने व्यापक स्थिरता को बनाए रखने के अपने संकल्प का प्रदर्शन किया है।
इंडियन बैंक के प्रबंध निदेशक और सीईओ शांतिलाल जैन ने कहा कि एकल प्राथमिक डीलरों को अधिकृत डीलर श्रेणी के बैंकों के रूप में विदेशी मुद्रा सेवाओं की पेशकश करने की अनुमति देने से विदेशी मुद्रा बाजार मजबूत होगा।
म्यूचुअल फंड के साथ मैं किस तरह के वित्तीय लक्ष्यों को पूरा कर सकता हूँ?

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वित्तीय और मौद्रिक नीति के साथ विकास व महंगाई की चुनौती
वर्ष 2022 में आर्थिक उत्पाद का अनुमानित आंकड़ा 3.2 फीसद है, जिसे 2023 में घटकर 2.9 फीसद होने की संभावना है।
सांकेतिक फोटो।
भारत दीर्घकालिक रूप से निम्न रोजगार, ऊंचे वित्तीय घाटे (वित्तीय वर्ष 2022-23 में लक्षित 6.4 फीसद बनाम सकल घरेलु उत्पाद के चार फीसद के स्तर पर रहने का मानक), निम्न निजी पूंजी निवेश और महामारी के बाद के कालखंड में सुस्त आर्थिक उभार से जुड़ी समस्याओं से जूझ रहा है। स्थिर दरों पर भारत की जीडीपी, महामारी से पूर्व के स्तरों (वित्त वर्ष 2019-20) को इस वित्तीय वर्ष के अंत तक ही हासिल कर सकेगी।
वर्ष 2022-23 में महंगाई के 6.7 फीसद रहने का अनुमान है, जो चार फीसद के स्वीकार्य मानक से ऊपर है। भारत की प्रति व्यक्ति आय अमेरिका और यूरोपीय संघ की प्रति व्यक्ति आय का क्रमश: 10 फीसद और 15 फीसद है। प्रति व्यक्ति आय का निम्न स्तर आर्थिक झटकों से निपटने के लिए जरूरी व्यक्तिगत लोच में भारी कमी ला देता है।
आय सहायता और वित्तीय दबाव
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महामारी की आमद के बाद से केंद्र और राज्य की सरकारें एक विशाल आबादी को प्रत्यक्ष आय हस्तांतरण की सुविधा मुहैया करवा रही हैं। इनमें सात करोड़ किसान शामिल हैं। दूसरी ओर, भोजन के अधिकार कानून के जरिए 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज और दलहन दिए जा रहे हैं। आय सहायता मुहैया कराने के लिए ग्रामीण कार्यों से जुड़े कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इसके अलावा खाद के फुटकर भाव को स्थिर कर दिया गया है। खुदरा कीमतों में कमी लाने के मकसद से र्इंधन पर उत्पाद करों में कटौती कर दी गई। महंगाई के चलते कर राजस्व में आंशिक बढ़ोतरी के बावजूद ऊपर के तमाम उपायों से वित्तीय मोर्चे पर दबाव पड़ा है।
वैश्विक परिदृश्य
वैश्विक आर्थिक परिदृश्य अनिश्चित है। वर्ष 2022 में आर्थिक उत्पाद का अनुमानित आंकड़ा 3.2 फीसद है, जिसके 2023 में घटकर 2.9 फीसद हो जाने का अंदेशा है। न्यूनतम रूप से इन दोनों ही आंकड़ों के क्रमश: 2.6 फीसद और दो फीसद तक चले जाने की संभावना है। यूक्रेन से खाद्य निर्यातों के बहाल होने और यूक्रेन और रूस में सैन्य क्षमता का पुनर्संतुलन हो जाने से टकराव की जगह कूटनीतिक कवायदों की ओर रुझान होता दिखाई दे रहा है।
घरेलू मोर्चे पर देखें तो वास्तविक नियंत्रण रेखा पर मौजूद टकराव बिंदुओं पर भारत लंबी अवधि की वित्तीय नीति और चीनी सेना के बीच लगातार कम होता तनाव परिपक्व कूटनीति का संकेत दे रहा है। इसका असर अर्थव्यवस्था पर दिख सकता है। हम अगले पांच साल में छह फीसद से भी ज्यादा रफ्तार वाले तेज विकास के दौर की उम्मीद कर सकते हैं, जबकि इसी कालखंड में वैश्विक वृद्धि दर के लगभग तीन फीसद रहने का अनुमान लगाया गया है।
विकास और महंगाई
महंगाई पर नकेल कसने के मकसद से रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में की गई बढ़ोतरी और विकास को बढ़ावा देने वाले खुदरा ब्याज दर के स्तरों में सामंजस्य कैसे बने। हाल ही में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि भारतीय संदर्भ में एकाकी रूप से संचालित मौद्रिक नीति, महंगाई पर नकेल कसने के लिहाज से एक बेअसर औजार साबित हो सकती है।
जानकारों की राय में भारत में वित्तीय संकेतकों के हिसाब से ब्याज दरों में बदलाव की रफ्तार सुस्त रहती है। मिसाल के तौर पर वर्ष 2015 से 2019 के बीच महंगाई दर छह फीसद (मानक बाहरी सीमा) से नीचे थी और दो साल के दौरान तो चार फीसद के मानक से भी नीचे थी। रेपो रेट को आठ फीसद (अप्रैल 2014) से सात फीसद (अप्रैल 2016) तक आने में दो साल लग गए। यह दर अप्रैल 2019 तक छह फीसद से ऊपर बना रहा।
गैर-मौद्रिक व्यवस्था पर जोर
वित्त मंत्री ने महंगाई पर लगाम लगाने के लिए गैर-मौद्रिक नीतिगत व्यवस्था के प्रयोग की वकालत की है। हालांकि, अभी महंगाई को बढ़ावा देने वाली वस्तुओं (जैसे पेट्रोलियम) पर कर वसूलने के मामले में केंद्र और तमाम राज्य सरकारों के बीच तालमेल का अभाव है। मौजूदा व्यवस्था कर उगाही को हवा दे रही है। इस सिलसिले में तालमेल हासिल करने का एक कार्यकुशल तरीका है- पेट्रोलियम को जीएसटी के दायरे में लाना।
चालू खाते के घाटे से जुड़े गैर-मौद्रिक नीतिगत पहलों (जिसमें वित्तीय घाटे को कम करना शामिल है) से रिजर्व बैंक को अपनी ब्याज दर नीति सटीक रूप से तैयार करने में मदद मिलेगी। यह ध्यान रखना होगा कि मौद्रिक नीति के तहत खुदरा ब्याज दरों का असर एक लंबी मियाद में ही दिखाई देता है, जबकि निवेशकों की धारणाओं का तात्कालिक असर होता है।
रुपए के भाव में गिरावट
भारतीय रिजर्व बैंक की दरों को निर्णायक रूप से घटाने से परहेज करने की नीति के पीछे भारत में महंगाई के ऊंचे स्तरों से मुकाबले के लिए रक्षा-कवच बरकरार रखने की जरूरत और विदेशी निवेशकों की जोखिम धारणाओं से निपटने की सोच काम करती है। विदेशी निवेशकों की विदाई से मुद्रा के भाव में भारी उतार आ सकता है। इसके अलावा सार्वजनिक क्षेत्र के वाणिज्यिक बैंकों के कोष इकट्ठा करने की लागत और उनके द्वारा बांटे जाने वाले ऋणों से कमाई जाने वाली ब्याज के बीच का अंतर कम करने की कवायद अब भी अधूरी है।
क्या कहते हैं जानकार
पूरी दुनिया में ब्याज दरों में जल्दबाजी में बढ़ोतरी हो रही है। भारत को इसकी नकल से परहेज करना चाहिए, क्योंकि इससे महामारी के बाद पटरी पर लौटती अर्थव्यवस्था पर सीधा दुष्प्रभाव पड़ सकता है।
आर्थिक नीति-निर्माताओं को अक्सर दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। दरअसल, वे वैकल्पिक समाधानों के बीच सामंजस्य बिठाते हैं, लेकिन इनमें से कुछ ही समाधान हर मायने में लाभदायक होते हैं।
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